हमारे देश का यंू ही तीज-त्यौंहारों का देश नहीं कहा जाता है, यहां हर दिन एक पर्व होता है तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में भिन्न भिन्न तरीकों से त्यौंहारों को मनाए जाने की परम्परा का निर्वहन किया जाता है। आधुनिक युग में मोबाईल, टीवी व बोझिल पढाई ने नन्हें-नन्हें बच्चों व भौतिकता की दौड ने अभिभावकों की सोच को बदल कर रख दिया है। जिससे कई परम्पराएं व त्यौंहार विलुप्तता के कगार पर पहुंच चुके है तथा वर्तमान युग के नौनिहालों को सदियों से मनाई जा रही परम्परा के अनुसार मनाए जाने वाले त्यौंहारों का ज्ञान तक नहीं है। जिनके बारे में वे अब किताबों में पढ़ रहे है व प्रतियोगी परीक्षाओं में उनका उत्तर देने में अपने आपको असमर्थ महसूस करते है। आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को गुड्डी बोलावनी का पर्व मनाया जाता है। इस दिन नन्हीं-नन्हीं बालिकाएं अपने छोटे-छोटे हाथों से कपडों के विभिन्न टुकडों को जोडकर गुडिया की आकृति देती है तथा जीवन में मंगल की कामना के साथ इसे किसी तालाब, जलाशय आदि में विसर्जित करती है। इसे पद्मनाभा, आषाढी, हरिशयनी अथवा देवशयनी एकादशी भी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार देवशयनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु सहित सभी देवी-देवता योग निद्रा में चले जाते हैं। इस दिन से चार महीने के लिए भगवान विष्णु योग निद्रा में रहते हैं। इस चार महीनों में मांगलिक कार्यों की मनाही हो जाती है तथा सृष्टि के संचालन का कार्य भगवान शिव के जिम्मे आ जाता है। कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की एकादशी को भगवान योग निद्रा से उठते हैं। इस एकादशी को देवउठनी एकादशी कहा जाता। आज के दिन राजस्थान में विशेष रूप से घूघरी बनाने की परम्परा है। साथ ही सरोवरों, तालाबों में कपड़े के गुड्डा-गुड्डी बनाकर बालिकाओं द्वारा जल में विसर्जित किए जाने की परम्परा का निर्वहन किया जाता है।