आज 24 जनवरी है, इस दिन इंदिरा गांधी ने पहली महिला प्रधानमंत्री के तौर पर देश का कार्यभार संभाला था, इसलिए इस दिवस को नारी शक्ति के रूप में याद रखने के लिए प्रति वर्ष राष्ट्रीय बालिका दिवस के तौर पर मनाया जाता है। इसकी शुरुआत महिला एवं बाल विकास, भारत सरकार ने 2008 में की थी। इसलिए इस दिन को राष्ट्रीय बालिका दिवस के रूप में मनाया जाता है। बालिका दिवस मनाने के पीछे उद्देश्य यह है कि समाज में बालिकाओं के सामने आने वाली चुनौतियों और उनके अधिकारों के संरक्षण के बारे में जागरूकता बढ़ाई जा सके। बालिका शिक्षा व जेंडर के मुद्दे पर कम करने वाली संस्थाएं व सरकारी विभाग इस दिवस को मानते है। यह दिवस हमें इस बात पर भी चिंतन एवं मनन करने का अवसर देता है कि हम देश में महिलाओं की स्थिति का एक जायजा लें, और आजादी के लगभग तीन-चौथाई शताब्दी पश्चात भी क्या हम लैंगिक समानता के लक्ष्य को हासिल कर पाये एवं इसमें क्या चुनौतियाँ हैं।
महिलाओं के लिए अपने सपनों को साकार करने में शिक्षा की अहम भूमिका है, क्योंकि शिक्षा व्यक्ति में उन कौशलों व क्षमताओं का विकास करती है जो उसे आत्मनिर्भर बनाने में सहायक होते हैं। गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुँच व्यक्ति के लिए विभिन्न अवसरों के द्वार खोलती है और उसे गरिमा पूर्ण जीवन जीने में मदद करती है। परंतु शिक्षा के क्षेत्र में गरीबी, स्थान, लिंग और जातीयता के आधार पर विषमता विश्वव्यापी है, विशेषतः विकासशील और अविकसित देशों में। युनेस्को की सन 2016 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार सम्पन्न देशों के तीन चौथाई बच्चों की तुलना में निम्न आय वाले देशों के गरीब परिवारों के लगभग एक चौथाई बच्चे ही विद्यालयों में हैं (यू॰आई॰एस॰ 2016)। गरीब परिवारों की बालिकाओं की शैक्षिक उपलब्धियां अक्सर बहुत कम रहती हैं। यदि आंकड़ों को लैंगिक आधार पर देखें तो यह अंतर और भी बढ़ जाता है। लैंगिक और गरीबी के दोहरे विलगाव का अर्थ है की निम्न आय वाले देशों की गरीब परिवारों की बालिकाओं मे से मात्र 25% बालिकाएँ ही प्राथमिक शिक्षा पूर्ण कर पाती हैं। (डबल्यू॰डी॰आर॰ 2018) ।
यदि हम भारत की बात करें तो यहाँ भी शिक्षा के क्षेत्र में बड़ी लैंगिक विषमता है। भारत में पुरूषों की साक्षरता दर 82.14% है जबकि स्त्रियो की साक्षरता दर केवल 65.46% ही है। यह अंतर लगभग 17% है (भारत की जनगणना 2011)। ग्रामीण क्षेत्रों में स्त्रियॉं की साक्षरता दर 50.6% है जबकि वहाँ पुरूषों की साक्षरता दर 74.1% है (भारत की जनगणना 2011)। पिछड़े, दूर-दराज क्षेत्रों में तो स्त्री साक्षरता दर और भी कम लग-भग 40% के आस-पास ही है। और यदि हम राजस्थान की बात करें तो अभी हाल ही में जारी एनएसएस रिपोर्ट 2017-18 के अनुसार महिला शिक्षा में सबसे खराब प्रदर्शन करने वाले राज्यों में राजस्थान सबसे टॉप पर है जहां शिक्षा में जेंडर गैप लगभग 23.2% है। यहाँ तक की उत्तर प्रदेश व बिहार का प्रदर्शन राजस्थान के मुक़ाबले बेहतर है।
भारत मे विध्यालयी शिक्षा प्रणाली एक प्रकार के ‘सीखने के संकट’ से गुजर रही है जहां शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़े मसले लड़कों और लड़कियों को समान रूप से प्रभावित करते हैं परिणामत: उनकी शैक्षिक उपलब्धि काफी कम रहती है।
बड़ी संख्या में बच्चे प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण कर निकल रहे हैं किन्तु उस कक्षा के स्तर की दक्षता उनमें नहीं है। विश्व विकास रिपोर्ट 2018 के अनुसार ग्रामीण भारत में कक्षा 3 के लगभग तीन चौथाई छात्र दो अंकों की बाकी वाले सवाल हल नहीं कर सके। बच्चों की भाषायी दक्षता संबंधी चिंताएँ तो ज्यों की त्यों बनी हुई हैं। कक्षा में शिक्षण प्रक्रियाओं की गुणवत्ता का मामला समान्यत: समान है और इसमें बालकों और बालिकाओं की शैक्षणिक उपलब्धियों में कोई बहुत अंतर नहीं है, उदाहरण के लिए कक्षा 3 पर एन. ए.एस 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, मध्य प्रदेश जहां लड़कों का स्तर बेहतर है और केरल और पुद्दुचेरी जहां बालिकाओं की स्थिति बेहतर है को छोड़कर, भाषा में बालकों का औसत राष्ट्रीय प्राप्तांक 256 तो बालिकाओं का 258 है। बालक और बालिकाएँ दोनों ही विद्यालयी शिक्षा में गुणवत्ता संबंधी मुद्दों और शिक्षण के निम्न स्तर से प्रभावित हैं। परंतु बालिकाओं के मुद्दे कुछ अलग और जटिल है जो की भारतीय समाज मे गहराई से व्याप्त हैं और पहुँच और अवसरों की उपल्ब्ध्ता के मामलों मे उन्हे भेदभाव का सामना करना पड़ता है। 11 से 14 वर्ष की बालिकाएँ विद्यालयों से निकाल लेने व पढ़ाई छुड़वा देने के मामले मे ज्यादा जोखिमपूर्ण स्थिती में हैं। 11 से 14 वर्ष की 4.1% भारतीय लड़कियां विद्यालय से बाहर हैं और भारत के पाँच राज्यों में यह प्रतिशत 5 से अधिक है। एएसईआर – 2018 के अनुसार राजस्थान में यह दर 7.4% है। 10 वीं कक्षा से पूर्व विद्यालय छोड़ देने वाले हर 100 बच्चों में से 66 लड़कियां होती हैं। लड़कियों के विद्यालय छोड़ देने के कारणों में एक महत्वपूर्ण कारण है उनकी कम उम्र में शादियाँ करना। औपचारिक शिक्षा व्यवस्था में पुरूषों और महिलाओं के नामांकन में अंतर उम्र के साथ बढ़ता जाता है। 14 वर्ष की आयु तक लड़कों और लड़कियों के नामांकन में मामूली ही अंतर रहता है। किन्तु 18 वर्ष में 28% लड़कों की तुलना में 32% लड़कियों का नामांकन नहीं हो पाता। लड़कों की तुलना में लड़कियों और युवा स्त्रियॉं की कंप्यूटर और इन्टरनेट तक पहुँच कहीं कमतर है। 49% ऐसे युवक एसे हैं जिन्होंने कभी इन्टरनेट का उपयोग नहीं किया जबकि ऐसी युवतियों की संख्या 76% है (सभी आंकड़े एएसईआर – 2017)। बालिकाओं की शिक्षा में कई बाधाएँ हैं और कम स्त्री साक्षरता के पीछे मूल कारण हैं पितृसत्तात्मक व पुरूष प्रधान भारतीय समाज जिसमें स्त्रियों को कमतर इंसान और एक मूल्यवान संपत्ति की तरह माना जाता है। स्त्रियों को बराबरी के अधिकार प्राप्त नहीं हैं और वे खुद अपनी ज़िंदगी के बारे में फैसला करने के लिए आजाद नहीं हैं। संसाधनों पर नियंत्रण और पहुँच के मामलों में बहुत लैंगिक भेदभाव है। समाज में भी धार्मिक और सामाजिक रूढ़ियाँ हैं और स्त्रियॉं की भूमिका घर की चाहरदीवारी तक ही सीमित मानी जाती है। वे बच्चे पालने, भोजन बनाने और घरेलू काम-काज करने के लिए जिम्मेदार मानी जाती हैं। घरों में लड़कियों से घरेलू काम-काज में अपनी माँ की मदद करने और छोटे भाई – बहिनों की देखभाल करने की अपेक्षा की जाती है। सामान्यतः एक लड़की को विद्यालय जाने से रोकने की शुरूआत उसके किशोरावस्था मे प्रवेश करते ही हो जाती है, माता-पिता दूर स्थित विध्यालय में उसके अकेले आने – जाने और उसकी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त नहीं होते। दूसरी ओर, विद्यालय का वातावरण भी बालिकाओं के प्रति अनुकूल नहीं होता। एएसईआर 2018 के अनुसार भारत के 19.1% विद्यालयों में लड़कियों के शौचालय चालू स्थिति में नहीं हैं। विद्यालयों में महिला शिक्षकों की कमी है। उच्च प्राथमिक विद्यालयों में कुल शिक्षकों का 34.2% ही महिलाएं हैं। (Elementary State Report Card 2015-16). विद्यालयों में किशोरियों के लिए मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक सलाह एवं सहायता प्रदान करने हेतु कोई व्यवस्था नहीं है। विद्यालयी पाठ्यक्रम और शिक्षण प्रक्रियायेँ भी समावेशी और लैंगिक दृष्टी से उपयुक्त नहीं हैं। बच्चे जो लैंगिक धारणाएँ अपने परिवारों से लेकर आते हैं भारतीय विद्यालय उन्हें और बल प्रदान करते हैं।
यदि हम गंभीरता पूर्वक शिक्षा में लैंगिक विषमता को पाटना चाहते हैं तो हमें विधालयी शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन करने होंगे व बालिका शिक्षा को प्रोत्साहन देने वाली नीतियाँ बनानी होंगी। सबसे पहली जरूरत है स्नातक स्तर तक बालिकाओं के लिए निशुल्क व अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान तथा विधालयी वातावरण व पाठ्यक्रम को जेंडर संवेदी बनाना । शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए ताकि वे उचित शिक्षण प्रक्रियाओं के जरिये बच्चों में लैंगिक समानता व न्याय जैसे मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता व उनमें समालोचनात्मक चिंतन, स्वतंत्र कर्म व विचार कर पाने की क्षमताओं का विकास पर पाएँ। साथ ही अकादमिक व विषयगत शिक्षण के अलावा जीवन कौशल संबंधी प्रशिक्षण बालिकाओं के लिए काफी उपयोगी साबित हो सकते हैं, विधालयी पाठ्यक्रम में इनका समावेश बालिकाओं के आत्मविश्वास को बढ़ाने, उनकी निर्णय क्षमता व सम्प्रेषण कौशलों को सकारात्मक रूप से प्रभावित करने में काफी उपयोगी साबित होंगे। विधालयों में बालिकाओं के लिए मनो-सामाजिक व कैरीयर परामर्श सुविधा उपलब्ध करवाने हेतु विशेषज्ञों की व्यवस्था करनी होगी ताकि बालिकाओं को अपने कैरीयर से संबन्धित सपने सँजो पाएँ व उन्हे साकार भी कर पाएँ। समाज मे बालिका शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने व लैंगिक भेदभाव मिटाने के लिए जागरूकता अभियान भी चलाने होंगे। कहने का तात्पर्य यह है कि बालिका शिक्षा को प्रभावित करने वाले सभी कारकों पर काम करके ही समाज में व्याप्त लैगिक विषमता से पार पायी जा सकती है और सही अर्थों में बालिका दिवस मनाने के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।