आचार्य श्री इंद्र नंदी महाराज ने कहा कि भगवान के ज्ञान कल्याणक का विधान बहुत पावन प्रसंग है। ज्ञान के समान संसार में दूसरा कोई सुख नहीं है। आप को भी जिस व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त हो उसका उपकार कभी नहीं भूलें। आचार्य श्री ने कहा कि सांसारिक कार्य कभी खत्म नहीं होते, अगर एक खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है। हमारे पास जो है उससे अधिक पाने की चाह न हो और जो नहीं है उसका दुख भी न हो तो व्यक्ति आनंद से जीवन जी सकता है। पूरी दुनिया में दुख नाम की वस्तु नहीं है। व्यक्ति अपनी कल्पना से ही सुखी और दुखी होता है। आचार्य इन्द्रनन्दी महाराज के सान्निध्य में सकल दिगम्बर जैन समाज व अग्रवाल दिगम्बर जैन समाज मालपुरा के तत्वावधान में जयपुर रोड स्थित पाण्डुक शिला मन्दिर में श्री शान्तिनाथ जिनबिम्ब एवं भव्य मानस्तंभ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महामहोत्सव व विश्व शांति महायज्ञ में गुरूवार को ज्ञान कल्याणक मनाया गया। विद्यालय के उत्सव प्रागंण में चल रहे पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव कार्यक्रम में प्रतिष्ठाचार्य पं. सुधीर मार्तण्ड केसरियाजी, सह-प्रतिष्ठाचार्य पं. मनोज शास्त्री बगरोही मध्यप्रदेश द्वारा अभिषेक, पूजन, गुरूदेव का प्रवचन, राजा सुमित से प्रथम आहार, पंचाश्चर्य, मंत्रों के आलोक में अधिवासना, नयनेभिवन प्राण प्रतिष्ठा, सुरिमंत्र केवलज्ञान महोत्सव मंच पर दिव्य दर्शन, मुख्य गणधर के रूप में गुरूदेव द्वारा दिव्य ध्वनि तथा सायंकाल में आरती, प्रवचन, आभार जताया गया तथा बोलियां लगाई गई। आचार्य श्री ने बताया कि तीर्थंकर पंचमहाव्रत, पंचसमिति, पंचोद्रिय निग्रह, दशधर्म आदि में सावधान रहते हुए कर्मशत्रुओं से युद्ध करने में संलग्न रहने लगे। अंत में वे दीक्षा वन में नागवृक्ष के नीचे बेला का नियम लेकर ध्यान लीन हो गए और क्रमश: शुक्ल ध्यान के बल से मोहनीय कर्म का नाश करने में सफल हो गए। फिर बारहवें गुणस्थान के अंत में द्वितीय शुक्ल ध्यान के प्रभाव में शेष तीन घातिया कर्मों का भी क्षय कर दिया। इसके साथ ही वे संयोग केवली हो गए। उनकी आत्मा अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य से संपन्न हो गई। उन्हें पाँचोंलब्धियों की उपलब्धि हो गई। अब वे सर्वज्ञ- सर्वदर्शी बन गए। इंद्रों और देवों ने भगवान के केवल ज्ञान की पूजा की। उन्होंने समवशरण की रचना की और उसमें भगवान की प्रथम दिव्य ध्वनि खिरी। आचार्य ने कहा कि यह कहना ठीक होगा कि समवशरण में दिव्य ध्वनि का गुंजन हो किंतु एक नज़ारा और होना चाहिए- वह है धर्मचक्र प्रवर्तन का। पद्मपुराण, हरिवंशपुराण व महापुराण में इसका बड़ा सुन्दर वर्णन है। उसका सारांश इस प्रकार है-भगवान का विहार बड़ी धूमधाम से होता है। याचकों को किमिच्छक दान दिया जाता है। भगवान के चरणों के नीचे देवलोग सहस्त्रदल स्वर्ण कमलों की रचना करते हैं। और भगवान इनको स्पर्श न कर अधर आकाश में ही चलते हैं। आगे-आगे धर्मचक्र चलता है। बाजे-नगाड़े बजते हैं। पृथ्वी इति-भीति रहित हो जाती है। इंद्र राजाओं के साथ आगे-आगे जयकार करते चलते हैं। आगे धर्मचक्र चलता है। मार्ग में सुंदर क्रीड़ा स्थान बनाए जाते हैं। मार्ग अष्टमंगल द्रव्यों से शोभित रहता है। भामंडल, छत्र, चंवर स्वत: साथ-साथ चलते हैं। ऋषिगण पीछे-पीछे चलते हैं। इंद्र प्रतिहार बनता है। अनेकों निधियाँ साथ-साथ चलती हैं। विरोधी जीव वैर विरोध भूल जाते हैं। अंधे, बहरों को भी दिखने-सुनने लग जाते हैं। यह दृश्य जनसमूह देखकर भाव-विह्वल हो सकता है। यह भगवान के जननायक होने का संदेश देता है। रात्रि में शांतिनाथ महिला मंडल की ओर से लघु सांस्कृतिक कार्यक्रम वैराग्य की ओर का मंचन किया गया। पंच कल्याणक प्रतिष्ठा महामहोत्सव में प्रतिदिन हजारों श्रद्धालुओं के मालपुरा पहुंचने का क्रम बना हुआ है जहां समिति की ओर से धर्मावलम्बियों के लिए सभी प्रकार की शानदार व्यवस्थाएं की गई है।